उन्माद (कहानी) : मुंशी प्रेमचंद
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पांच साल के बाद वागेश्वरी का लुट हुआ सुहाग फ़िर चेता। मां-बाप पुत्र के वियोग में रो-रोकर अन्धे हो चुके थे। वागेश्वरी निराशा में भी आस बांधे बैठी हुयी थी। उसका मायका सम्पन्न था। बार-बार बुलावे आते, बाप आया, भाई आया, पर धैर्य और व्रत की देवी घर से न टली।
जब मनहर भारत आया, तो वागेश्वरी ने सुना कि वह विलायत से एक मेम लाया है। फिर भि उसे आशा थी कि वह आयेगा, लेकिन उसकी आशा पूरी न हुयी। फिर उसने सुना वह ईसाई हो गया है। आचार-विचार त्याग दिया है। तब उसने माथा ठोंक लिया।
घर की व्यवस्था दिन दिन बिगड़ने लगी। वर्षा बन्द हो गयी और सागर सूखने लगा। घर बिका, कुछ जमीन थी वह बिकी, फिर गहनों की बारी आई। यहं तक कि अब केवल आकाशी वृत्तिथी। कभी चूल्हा जल गया, कभी ठंडा पड़ा रहा।
एक दिन संध्या समय वह कुऐ पर पानी भरने गयी थी के एक थका हुआ, जीर्ण, विपत्ति का मारा जैसा आदमी आकर कुऐ की जगत पर आकर बैठ गया। वागेश्वरी ने देखा तो मनहर! उसने तुरन्त घूंघट काढ़ लिया। आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, फिर भी आनन्द और विस्मय की हृदय में फ़ुरेरियां उड़ने लगीं। रस्सी और कलसा कुऐ पर छोड़कर लपकी हुयी घर आयी और सास से बोली-अम्मांजी, जरा कुएँ पर जाकर देखो कौन आया है। सास न कहा-तू पानी भरने गयी थी, या तमाशा देखने? घर में एक बूंद पानी की नहीं है। कौन आया है कुएँ पर?
'चलकर देख लो न'
कोई सिपाही प्यादा होगा। अब उनके सिवा कौन अने वाला है। कोई महाजन तो नहीं है?
'नही अम्मां तुम चली क्यों नहीं चलती?'
बूढ़ी माता भांति-भांति की शंकाये करती हुयी कुऐ पर पहुंची, तो मनहर दौड़कर उनके पैरों में लिपट गया। माता ने उसे छाती से लगाकर कहा-तुम्हारी यह दशा है, मानू? क्या बीमार हो? असबाब कहां है?
मनहर ने कहा-पहले कुछ खाने को दो अम्मा! बहुत भूखा हूं। मैं बड़ी देर से पैदल चला आ रहा हूं।
गांव मॆं खबर फैल गयी कि मनहर आया है। लोग उसे देखने दौड़ पड़े। किस ठाट से आया है? ऊंचे पद पर है। हजारों रुपये पाता है। अब उसके ठाट का क्या पूंछना! मेम भी साथ आयी है या नहीं?
मगर जब आकर देखा, तो आफत का मारा आदमी, फटेहाल, कपड़े तार-तार, बाल बढ़े हुये, जैसे जेल से आया हो।
प्रश्नों की बौछार होने लगी-हमने तो सुना था तुम किसी ऊंचे पद पर हो।
मनहर ने जैसे किसी भूली बात को याद करने का विफल प्रयास किया-मैं! मैं तो किसी ओहदे पर नहीं।
'वाह! विलायत से मेम नहीं लाये थे?'
मनहर ने चकित होकर कहा-विलायत! कौन विलायत गया था?
'अरे भंग तो नहीं खा आये हो। विलायत नहीं गये थे?
मनहर मूढ़ों की भांति हंसा-मैं विलायत क्या करने जाता?
'अजी तुमको वजीफा मिला नहीं था? यहां से तुम विलायत गये थे। तुम्हारे पत्र बराबर आते थे। अब कहते हो मैं विलायत गया ही नहीं। होश में हो, या हम लोगों को उल्लू बना रहे हो?'
मनहर ने उन लोगों की तरफ़ आंखे फाड़ कर देखा और बोला-मैं तो कहीं नहीं गया था। आप लोग न जाने क्या कह रहे हैं।
अब इसमें सन्देह की गुन्जाइश न रही कि वह अपने होशोहवास में नहीं है। उसे विलायत जाने के पहले की सारी बातें याद थीं।गांव और घर के एक-एक आदमी को पहचानता था; लेकिन जब इंग्लैण्ड , अंग्रेज बीवी और ऊंचे पद का जिक्र आता तो भौचक्का होकर ताकने लगता। वागेश्वरी को अब उसके प्रेम में एक अस्वाभाविक अनुराग दीखता, जो उसे बनावटी मालूम होता था। वह चाहती थई कि उसके व्यवहार और आचरण में पहले जैसी बेतकल्लुफी हो। वह प्रेम का स्वांग नहीं, प्रेम चाहती थी। दस ही पांच दिनों में उसे ज्ञात हो गया कि इस विशेष अनुराग का कारण बनावट या दिखावा नहीं है, वरन कोई मानसिक विकार है। मनहर ने मां बाप का इतना अदब पहले कभी नहीं किया था। उसे अब मोटे से मोटा काम करने में कोई संकोच नहीं था। वह, जो बाजार से साग-सब्जी लाने में अपना अनादर समझता था, अब कुऐ से पानी खींचता, लकड़्यां फाड़ता और घर में झाड़ू लगाता थाऔर अपने घर में ही नहीं, सारे मुहल्ले में उसकी सेवा और नम्रता की चर्चा होती थी।
एक बार मुहल्ले में चोरी हो गयी। पुलिस ने बहुत दौड़-धूप की; पर चोरों का पता न चला। मनहर ने चोरी का पता ही नहीं लगा दिया, वरन माल भी बरामद करा दिया। इससे आस-पास के गांवो और मुहल्लों में उसका यश फैल गया। कोई चोरी होती तो लोग उसके पास दौड़े आते और अधिकांश उध्योग उसके सफल भी होते। इस तरह उसकी जीविका की एक व्यवस्था हो गयी। वह अब वगेश्वरी के इशारों का गुलाम था। उसी की दिल्जोई और सेवा में उसके दिन कटते। अगर उसमें विकार या बीमारी का कोई लक्षण था तो ,तो वह इतना ही। यही सनक उसे सवार हो गयी थी।
वागेश्वरी को उसकी दशा पर दुःख होता; पर उसकी यह बीमारी उस स्वास्थय से उसे कहीम प्रिय थी, जब वह उसकी बात भी न पूंछता था।